Monday, December 27, 2010

वो खत के पुरजे


कितना सुहाना दौर हुआ करता था, जब खत लिखे पढे और भेजे जाते थे । हमने पढे लिखे और भेजे इसलिये कहा क्योकि ये तीनो ही कार्य बहुत दुष्कर लेकिन अनन्त सुख देने वाले होते थे ।

खत लिखना कोई सामान्य कार्य नही होता था, तभी तो कक्षा ६ मे ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम मे होता था । मगर आज के इस भागते दौर मे तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है । मुझे याद है वो समय जब पोस्ट्कार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पडता था कि क्या लिखना है, क्योकि उसमे लिखने की सीमित जगह होती थी, और एक अन्तर्देशीय के तो बँटवारे होते थे, जिसमे सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था । तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी मे शामिल नही हुये थे । तभी तो पूरा परिवार एक ही खत मे अपनी अपनी बातें लिख देता था । आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है ।

पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार – जवाब के आने का ।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था, और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता– कि कौन पहले पढेगा ? कभी कभी तो भाई बहन के बीच झगडा इतना बढ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती । तब अम्मा आकर सुलह कराती । अब तो वो सारे झगडे डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं ।

और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये अपनी प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे । कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी , मगर उससे ज्यादा मेहनत तो उसको पढ्ने के लिये करनी पडती थी । कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पडता था तो कभी दिन मे ही चादर ओढ कर सोने का बहाना करना पडता था । कभी खत पढते पढते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालो पर आसूँ ढल आते थे । और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पडती थी।

खत पढते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे , कभी उसके गिलाफ के अंदर , कभी किताब के पन्नो के बीच मे तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच में । इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कही किसी के हाथ ना लग जाय, वरना तो शामत आई समझो ।

अब आज के दौर मे जब हम ई – मेल का प्रयोग करते है, हमे कोई इन्तजार भले ही ना करना पडता हो , लेकिन वो खत वाली आत्मियता महसूस नही हो पाती । अब डाकिये जी मे भगवान नजर नही आते । आज गुलाब इन्तजार करते है किसी खत का , जिनमे वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये । शायद खत हमारी जिन्दगी मे बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे – चाहे वो – वो खत के पुरजे उडा रहा था हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ कर हो , चाहे चिट्ठी आई है हो या मैने खत महबूब के नाम लिखा हो । आज चाहे ई –मेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हो मगर हमारी यादो की किताब मे उनका एक भी अध्याय नही , शायद तभी आज तक एक भी गीत इन ई-मेल्स के हिस्से नही आया ।

आज भी मेरे पास कुछ खत है जिन्हे मैने बहुत सहेज कर रक्खा है , मै ही क्यो आप के पास भी कुछ खत जरूर होंगे (सही कहा ना मैने) और उन खतों को पढने से मन कभी नही भरता जब भी हम अपनी पुरानी चीजों को उलटते है , खत हाथ में आने पर बिना पढे नही रक्खा जाता ।

साभार : अपर्णा त्रिपाठी - पलाश

8 comments:

www.dakbabu.blogspot.com said...

अपर्णा त्रिपाठी जी का यह लेख तो काफी प्रभावी है. ख़त आने भले ही कम हो गए हों, पर इसने लोगों की संवेदनाएं भी कम कर दी हैं. हर कुछ फास्ट हो गया है, शायद रिश्ते भी...
इसीलिए इस लेख को हमने साभार 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग पर प्रकाशित किया है.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

bahut sahi kaha aapne iss post me....:)

kya din the....kitna soch samajh kar kitne panno ko barbad karne ke baad khat taiyar hota tha...
aur fir reply ka intzaar...aur mazedaar..:)

संजय भास्‍कर said...

bahut sahi kaha aapne

Akanksha Yadav said...

।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था, और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता– कि कौन पहले पढेगा ?
___________________________

वो भी क्या दिन दिन थे. बीती यादें ताजा करा दी अर्चना जी ने...साधुवाद.

palash said...

@ कृष्ण जी हमारी चिट्ठी को डकिया डाक लाया पर लाने के लिये धन्यवाद
॰ आकांक्षा जी यह पत्र आपको अपर्णा ने लिखा है आपने पूरा पत्र बहुत ध्यान से पढा - आभार

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत ही भावपूर्ण.

R R RAKESH said...

APARNA JI KE LEKH SE PAHLE MAI DAKIYA DAK LAYA BLOG KO BADHAI DETA HAUN IS BLOG KE KARAN HI HAME APARNA JI KA LEKH PADHNE KO MILA HAI.

Unknown said...

आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है....Sahi hi to kaha ji.