Monday, May 24, 2010

वो चिट्ठियों की दुनिया

अभी हाल ही में मेरे एक मित्र की सगाई सम्पन्न हुई। पेशे से इंजीनियर और हाईटेक सुविधाओं से लैस मेरा मित्र अक्सर सेलफोन या चैटिंग के द्वारा अपनी मंगेतर से बातें करता रहता। तभी एक दिन उसे अपनी मंगेतर का पत्र मिला। उसे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि पत्र में तमाम ऐसी भावनायें व्यक्त की गई थीं, जो उसे फोन पर या चैटिंग के दौरान भी नहीं पता चली थीं। अब मेरे मित्र भी अपनी खूबसूरत मनोभावनाओं को मंगेतर को पत्र लिखकर प्रकट करने लगे हैं। इसी प्रकार बिहार के एक गाँव से आकर दिल्ली में बसे अधिकारी को अपनी माँ की बीमारी का पता तब चला जब वे एक साल बाद गाँव लौटकर गये। उन्हें जानकर आश्चर्य हुआ कि इतनी लंबी बीमारी उनसे कैसे छुपी रही, जबकि वे हर सप्ताह अपने घर का हाल-चाल फोन द्वारा लेते रहते थे। आखिरकार उन्हें महसूस हुआ कि यदि इस दौरान उन्होंने घर से पत्र-व्यवहार किया होता तो बीमारी की बात जरूर किसी न किसी रूप में पत्र में व्यक्त होती।

वस्तुतः संचार क्रान्ति के साथ ही संवाद की दुनिया में भी नई तकनीकों का पदार्पण हुआ। टेलीफोन, मोबाइल फोन, इण्टरनेट,फैक्स,वीडियो कान्फं्रेसिंग जैसे साधनों ने समग्र विश्व को एक लघु गाँव में परिवर्तित कर दिया। देखते ही देखते फोन नम्बर डायल किया और सामने से इच्छित व्यक्ति की आवाज आने लगी। ई-मेल या एस0एम0एस0 के द्वारा चंद सेकेंडों में अपनी बात दुनिया के किसी भी कोने में पहुँचा दी। वैश्विक स्तर पर पहली बार 1996 में संयुक्त राज्य अमेरिका में ई-मेल की कुल संख्या डाक सेवाओं द्वारा वितरित पत्रों की संख्या को पार कर गई और तभी से यह गिरावट निरन्तर जारी है। ऐसे में पत्रों की प्रासंागिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे। क्या वाकई पत्र-लेखन अतीत की वस्तु बनकर रह गया है? क्या सुदूर देश में बैठे अपने पति के पत्रों के इन्तजार में पत्नियाँ बार-बार झांककर यह नहीं देखतीं कि कहीं डाकिया बाबू उनका पत्र बाहर ही तो नहीं छोड़ गया? क्या पत्र अब किताबों में और फिर दस्तावेजों में नहीं बदलेगें ?....... पत्रों से दूरी के साथ ही अहसास की संजीदगी और संवेदनाएं भी खत्म होने लगीं।

सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का माना जाता है, जो कि मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। यह बेबीलोन के खंडहरों से मिला था, जो कि मूलतरू एक प्रेम-पत्र था। बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा- ष्मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।ष् यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और आज हम वर्ष 2010 में जी रहे हैं।

जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बडी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में एवम् संजोकर रखने तथा मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति में चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया का बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पक्ष यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। युवा कवयित्री आकांक्षा यादव की कविता ’एस0एम0एस0’ में इसकी एक बानगी देखी जा सकती है- अब नहीं लिखते वो खत/करने लगे हैं एस0 एम0 एस0/तोड़ मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ/करते हैं खुशी का इजहार/मिटा देता है हर नया एस0 एम0 एस0/पिछले एस0 एम0 एस0 का वजूद/एस0 एम0 एस0 के साथ ही/शब्द छोटे होते गए/भावनाएँ सिमटती गईं/खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा/लघु होता गया सब कुछ/रिश्तों की कद्र का अहसास भी।

पत्र लिखना एक शौक भी है। आज भी स्कूलों में जब बच्चों को पत्र लेखन की विधा सिखायी जाती है तो अनायास ही वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखने का प्रयास करने लगते हैं। फिर शुरू होता है पिता की हिदायतों का दौर और माँ द्वारा जल्द ही बेटे को अपने पास देखने की कामना व्यक्त करना। पत्र सदैव सम्बंधों की उष्मा बनाये रखते हैं। पत्र लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें कोई जल्दबाजी या तात्कालिकता नहीं होती, यही कारण है कि हर छोटी से छोटी बात पत्रों में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाती है जो कि फोन या ई-मेल द्वारा सम्भव नहीं है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका स्थायित्व है। कल्पना कीजिये जब अपनी पुरानी किताबों के बीच से कोई पत्र हम अचानक पाते हैं, तो लगता है जिन्दगी मुड़कर फिर वहीं चली गयी हो। जैसे-जैसे हम पत्रोें को पलटते हैं, सम्बन्धों का एक अनंत संसार खुलता जाता है। किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-

खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में

सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। पत्रों का अपना एक भरा-पूरा संसार है। दुनिया की तमाम मशहूर शख्सियतों ने पत्र लिखे हैं- फिर चाहे वह महात्मा गाँधी हों, नेपोलियन, अब्राहम लिंकन, क्रामवेल, बिस्मार्क या बर्नाड शा हों। माक्र्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षायें दी जाय, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने हेतु जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहिये। महात्मा गाँधी तो रोज पत्र लिखा करते थे। महात्मा गाँधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।


यह अनायास ही नहीं है कि डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डाॅ0 राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। उर्दू अदब की बेमिसाल शख्सियत पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग से जुड़ी रहीं। स्वयं उ0प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पिता डाक-तार विभाग में ही थे। साहित्य जगत में अपनी पहचान स्थापित करने वाले तमाम नाम- कवि तेजराम शर्मा, साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव, कहानीकार दीपक कुमार बुदकी, कथाकार ए. एन. नन्द, शायर अब्दाली, गीतकार राम प्रकाश शतदल, गजलकार केशव शरण, कहानीकार व समीक्षक गोवर्धन यादव, बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबंधु, लघु कथाकार बलराम अग्रवाल, कालीचरण प्रेमी, अनुराग लाक्षाकर, मंचीय कवि जवाहर लाल जलज, शारदानंद दुबे, जितेन्द्र कुमार, शायर आलम खुर्शीद इत्यादि भारतीय डाक विभाग की समृद्ध परंपरा के ही अंग हैं। स्पष्ट है कि डाक विभाग सदैव से एक समृद्ध विभाग रहा है और तमाम मशहूर शख्सियतें इस विशाल विभाग की गोद में अपनी काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।

सूचना क्रान्ति की बात करने वाले दिग्गज भले ही बड़ी-बड़ी बातें करें, पर भारतीय संदर्भ में इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आज भी एक अरब से ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्र में लगभग 50 करोड़ लोगों के पास ही टेलीफोन सुविधायें हैं अर्थात् समग्र टेलीफोन घनत्व मात्र लगभग 45 फीसदी है, जबकि गाँवों में यह और भी कम है। इण्टरनेट सुविधा का इस्तेमाल तो वर्ष 2008 तक मात्र 4.53 करोड़ लोग ही कर रहे थे। सूचना क्रान्ति के दिग्गज तो आज एफ0एम0 क्रान्ति की बात करते हैं, पर गाँवों में जाकर देखिए कितने लोग एफ0एम0 के बारे में जानते हैं। दूरदर्शन को पिछड़ा करार देकर बहु-चैनलीय संस्कृति की बात की जा रही है, टेलीफोन की बजाय मोबाइल और फिर एस0एम0एस0 की जगह एम0एम0एस0 की बात की जा रही है, पर कितने लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा पा रहे हैं। सूचना क्रान्ति के जिन महारथियों ने विभिन्न चैनलों पर पत्रों को घिसा-पिटा करार देकर सीधे एस0एम0एस0 द्वारा जवाब माँगना आरम्भ कर दिया है, वे भारत की कितनी प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं? यह सब ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार चुनावों से पहले बड़े-बड़े ‘‘मतदान पूर्व सर्वेक्षणों’’ का दावा किया जाता है, पर चुनाव के बाद अधिकतर सर्वेक्षण फ्लाप नजर आते हैं। कारण ये सर्वेक्षण समाज के मात्र एक तबके के मध्य ही किये गये हैं, ग्रामीण भारत की उनमें पूरी उपेक्षा की गई है। कोई भी सूचना या संचार क्रान्ति ग्रामीण भारत को शामिल किए बिना संभव नहीं।

पत्र कल भी लिखे जाते रहे हैं और आज भी लिखे जा रहे हैं। आज भी हर मिनट में संसार में 1,90,000 पत्र आते-जाते हैं। हाल ही में अन्तरिक्ष में उड़ान भरने वाली भारतीय मूल की सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ अपने पिता के हिन्दी में लिखे पत्र भी साथ लेकर गयी हैं। कोई भी अखबार या पत्रिका ‘पाठकों के पत्र’ कालम का मोह नहीं छोड़ पाती है। डाकघरों के साथ-साथ कूरियर सेवाओं का समानान्तर विकास पत्रों की महत्ता को उजागर करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे सूचना क्रान्ति के अगुआ राष्ट्रों में आज भी प्रति व्यक्ति, हर वर्ष 734 डाक मदें प्राप्त करता है अर्थात एक दिन में दो से भी कुछ अंश ज्यादा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को आज भी रोज 40,000 से ज्यादा पत्र प्राप्त होते हैं। फोन द्वारा न तो हर बात करना सम्भव है और न ही इण्टरनेट हर किसी की हैसियत के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय गाँवों में जहाँ पत्नियाँ अभी भी घरों से बाहर ज्यादा नहीं निकलतीं, दूर रह रहे पति को अपनी समस्याओं व भावनाओं से पत्रों के माध्यम से ही अवगत कराती हैं और फिर पति द्वारा भेजी गई चिट्ठियों को सहेज कर बाक्स में सबसे नीचे रखती हैं ताकि अन्य किसी के हाथ न लगें। परदेश कमाने गये बेटे की चिट्ठियाँ अभी भी माँ डाकिये से पढ़वाती है और फिर उसी से जवाब लिखने की भी मनुहार करती हैं। कई बार बातों से जब बात नहीं बनती तो भी लिखने पड़ते हैं पत्र। पत्र हाथ में आते ही चेहरे पर न जाने कितने भाव आते हैं व जाते हैं, कारण पत्र की लिखावट देखकर ही उसका मजमून भांपने की अदा। व्यक्ति चिट्ठियाँ तात्कालिक रूप से भले ही जल्दी-जल्दी पढ़ ले पर फिर शुरू होती है-एकान्त की खोज और फिर पत्र अगर किसी खास के हों तो सम्बन्धों की पवित्र गोपनीयता की रक्षा करते हुए उसे छिप-छिप कर बार-बार पढ़ना व्यक्ति को ऐसे उत्साह व ऊर्जा से भर देता है, जहाँ से उसके कदम जमीं पर नहीं होते। वह जितनी ही बार पत्र पढ़ता है, उतने ही नये अर्थ उसके सामने आते हैं। ऐसा लगता है मानो वे ही साक्षात खड़े हों। ऐसे ही किसी समय में हसरत मोहानी ने लिखा होगा-

लिक्खा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत!

कृष्ण कुमार यादव

15 comments:

Shahroz said...

कृष्ण कुमार जी, मन को झंकृत करता है आपका यह आलेख...चीट्ठियों और उनसे जुड़ी इत्ती बातें देख-जानकर बड़ा अच्छा लगा.

Unknown said...

पत्रों में जो संवेदना होती है, उसका स्थान मेल और फोन नहीं ले सकते..बेहतरीन लेख.

Bhanwar Singh said...

डाक विभाग से जुड़ी तमाम विभूतियों के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई. तमाम मूर्धन्य साहित्यकार डाक विभाग की ही पैदाइश हैं...

Dr. Brajesh Swaroop said...

उसे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि पत्र में तमाम ऐसी भावनायें व्यक्त की गई थीं, जो उसे फोन पर या चैटिंग के दौरान भी नहीं पता चली थीं। अब मेरे मित्र भी अपनी खूबसूरत मनोभावनाओं को मंगेतर को पत्र लिखकर प्रकट करने लगे हैं।
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बड़ी रोमांटिक बात. हम भी ट्राई करते हैं.

Amit Kumar Yadav said...

पत्रों की निराली दुनिया पर शानदार आलेख..के. के. भैया को हार्दिक बधाई.

Anonymous said...

इत्ता लम्बा, अब तो इसका प्रिंट आउट लेकर आराम से पढूंगी.

S R Bharti said...

Sir, Dak vibhag men rahkar bhi ham logon ko itni jankari nahin thi. lajwab likha apne.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत बढ़िया पोस्ट.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का माना जाता है, जो कि मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। यह बेबीलोन के खंडहरों से मिला था, जो कि मूलत: एक प्रेम-पत्र था। बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा- ष्मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।
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दुनिया के इस सबसे पहले पत्र के बारे में जानकर अच्छा लगा.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

कुछ भी कहें, पत्रों में जो रोमांटिसिज्म होता है उसका कोई जवाब नहीं. तभी तो आज भी अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा को हर दिन ४०,०००से ज्यादा पत्र मिलते हैं.

Mrityunjay Kumar Rai said...

पोस्ट हमें दस साल पीछे की यादों में धकेल गया , धन्यवाद आपका , अभी १९९५ से पहले तक हमारे लिए सुचना आदान प्रदान का माध्यम केवल चिट्ठी थी , पर आज तो पल पल की खबर मिलती रहती है , पर पत्र के जरिये वो सब व्यक्त कर सकते है जो जबान से नहीं कर सकते है

Ra said...

अच्छा आलेख ....पढ़कर अच्छा लगा // पर आज भी चिट्ठी उतनी ही प्रभावशाली है

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut umda

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

Udan Tashtari said...

बहुत ही बेहतरीन आलेख और जानकारीपूर्णभी. यह सब जानकारी अन्यथा कहाँ जान पाते हैं. आभार.

संजय भास्‍कर said...

.बेहतरीन लेख