Wednesday, April 21, 2010

युग-युग जियो डाकिया भैया

युग-युग जियो डाकिया भैया, सांझ सबेरे इहै मनाइत है.....
हम गंवई के रहवैया
पाग लपेटे, छतरी ताने, कांधे पर चमरौधा झोला,
लिए हाथ मा कलम दवाती, मेघदूत पर मानस चोला
सावन हरे न सूखे कातिक, एकै धुन से सदा चलैया......

शादी, गमी, मनौती, मेला, बारहमासी रेला पेला
पूत कमासुत की गठरी के बल पर, फैला जाल अकेला
गांव सहर के बीच तुहीं एक डोर, तुंही मरजाद रखवैया
थानेदार, तिलंगा, चैकीदार, सिपाही तहसीलन के
क्रुकअमीन गिरदावर आवत, लोटत नागिन छातिन पै
तुहैं देख कै फूलत छाती, नयन जुड़ात डाकिया भैया
युग-युग जियो डाकिया भैया.......

अनिल मोहन

7 comments:

संजय भास्‍कर said...

युग-युग जियो डाकिया भैया...

....... ढेर सारी शुभकामनायें....

दिलीप said...

bahut sundar sir...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

डॉ. मनोज मिश्र said...

बेहतरीन,यही दुआ मेरी भी है.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

Bahut khub...युग-युग जियो डाकिया भैया...

S R Bharti said...

सावन हरे न सूखे कातिक, एकै धुन से सदा चलैया......

अति उत्तम सर ,
बहुत बहुत धन्यवाद
ट्रांस्लेत्टर कम नहीं कर रहा है.

Akshitaa (Pakhi) said...

डाकिया आया और डाक देकर चला गया..ह़ा..हा..हा..

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.