Tuesday, July 21, 2009

चिट्ठी












बहुत दिनों बाद
घर से चिट्ठी आई है,
खुशी के साथ
आंख भी भर आई है।
पूछा है-
कब आओगे गांव,
पैसों की जरूरत है
पत्नी के
भारी हो गए हैं पांव।
मां को घुटनों
और पिता को आंखों
की बीमारी है,
सूखे से फसल
दगा दे गई
दाल रोटी की भी
दुश्वारी है।
दवा इलाज हो तो
कम हो जाता मर्ज
पर कैसे?
रूपयों के लाले हैं
महाजन भी नहीं
दे रहा है कर्ज।
फिर लिखा है-
आ न सको तो
कोई बात नहीं
अपना सब कुछ
सह लेंगे
पर बहू की बात
कुछ और है,
पेट में पहला बच्चा है
आखिर उसका भी तो
अपना खर्चा है।
तुम भी कपड़े लत्ते की
कमी न होने देना
परेशानी हम समझते हैं,
पर जैसे-तैसे-कैसे भी
कुछ रूपयों का मनीआर्डर
जल्दी भिजवा देना।

मोहन राजपूत,दैनिक जागरण, रूद्रपुर,
ऊधमसिंह नगर (उत्तराखंड)


(दैनिक जागरण में 20 जुलाई 2009 को प्रकाशित मोहन राजपूत की यह कविता बड़ी प्रभावी एवं रोचक लगी। इसे साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।)

7 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

वाकई यह प्रभावी एवं रोचक रचना है.

Akanksha Yadav said...

अपना सब कुछ
सह लेंगे
पर बहू की बात
कुछ और है,
पेट में पहला बच्चा है
आखिर उसका भी तो
अपना खर्चा है।
.....badi prabhavshali aur dilchasp kavita hai.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

बहुत दिन बाद चिट्ठी पर कोई सुन्दर कविता पढ़ी...आज सोच रही हूँ की एक चिट्ठी लिख ही डालूं.

Amit Kumar Yadav said...

काश कोई मुझे भी चिट्ठी लिखता...

ज्योति सिंह said...

bahut sundar .khat likhane ka silsala to aaj na ke kareb ho gaya .khabar muhjabani ho gayi .

संजय भास्‍कर said...

बहुत दिन बाद चिट्ठी पर कोई सुन्दर कविता पढ़ी...आज सोच रही हूँ की एक चिट्ठी लिख ही डालूं.

संजय भास्‍कर said...

very nice..